Ritu

Ritu Reflects

Reflections on life, poetry, and personal experiences

"कौन हो तुम?"

तुम वह भी नहीं जो तुम मानते हो,

और ना ही वह जो तुम जानते हो।

तुम वो हो जो तुमसे परे है — कोई गहरा मौन, एक शुद्ध उपस्थिति।

ना कोई विजेता, ना कोई हारा हुआ,

ना ही कोई तीस मार खाँ,

और ना ही किसी की कोई गुहार।

तुम वो हो —

जो तुम्हारे भीतर है, जिसे ना तुम जान पाए अभी तक,

और ना ही जो तुम्हें जानता है।

पहचानते हो क्या खुद को? सच में?

कितना? कितना पहचानते हो?

क्या वही जो लोगों ने कहा?

या जो तुमने अब तक देखा?

क्या वो कुछ कागज़ों पर दर्ज बातें ही हो तुम...?

या वो कुछ अनसुलझी सी कहानियों के कुछ लम्हे?

ना, तुम वो नहीं जो तुमने खुद को बना लिया है।

और ना ही वो, जो तुम दुनिया को दिखाते हो।

तुम वो हो —

जो कभी-कभार एक झलक बनकर तुम्हारे भीतर दिखाई देता है।

वो, जिसे तुमने कभी अपनी इन दो आँखों से देखा ही नहीं।

वो, जो तुम्हारे भीतर तो है, पर कभी साँसों में बहा ही नहीं।

मत ढूँढो उसे — ना इसमें, ना उसमें,

ना आज में, ना कल में।